Friday, December 12, 2008

यूँ ही

मैंने सोचा
कि उसके चले जाने से,
जो कांपती सी खाली जगह बची है,
वहाँ कुछ शब्द रख दूँ,
फिर मन में आया,
कि खुरदरे संबंधों और अपमानित आशाओं को क्या नाम दूँगा?

क्यूंकि जाले सिर्फ़ कमरों में ही नहीं,
मन और शरीर पर भी तो उग आए हैं!

मेरे शब्दकोष पर लगे ताले कि चाबी
तो बरसों पहले ही खो दी थी उसने,
पता नही यह जगह
उसे अब याद भी होगी या नही.
इस ताले में रखे शब्द
मुझे उससे जोड़ेंगे या स्पंदित होकर ख़ुद भी खो जायेंगे.

मुझे मालूम है कि
बिना शब्दों के
न तो वो बचेगी न ही ये स्पंदन,
जो बचेगा वो मैं ही होऊंगा ,
क्यूंकि उजाले और मटियाले कि महक बताने के लिए
किसी को तो बचना होगा
शब्दों कि जगह.

Wednesday, November 26, 2008

ऐ ज़िन्दगी

ऐ ज़िन्दगी आ,
इक शाम मेरे घर भी आ.
करेंगे बैठकर दो चार बातें,
मेरी पोटली में बहुत कुछ है जो है दिखाना तुझको,
मेरे पास बहुत कुछ है जो है सुनाना तुझको.

हैरान ना होना,जो इक बात पूछूँ तुमसे,
सुना है!
बहुत खूबसूरत हो तुम?
गर ये सच है
तो परदे में आना ऐ ज़िन्दगी,
अब तो हर खूबसूरत चीज़ डराती है मुझको.

ये जो चाँद है न! सोचता हूँ तोड़ लूँ इसको,
ये जो तारे हैं, सोचता हूँ नोच लूँ इनको,
और सजा लूँ अपने घर के आँगन में.

सोचता हूँ अब तो घर में खुशियाँ ही रखूँ,
ये जो मैले से गम हैं इन्हे अलविदा कर दूँ.

उकता गया हूँ इस तरह जीने से मैं,
थक गया हूँ ख़ुद को ख़ुद ही से मिलाने में मैं.

तुम आओ तो मेरा पता देना,
हो सके तो कुछ और भी बता देना.

मैं आँगन में खड़ा हूँ,
तक रहा हूँ रास्ता तेरा.

ऐ ज़िन्दगी आ इक शाम मेरे घर भी,
करेंगे बैठकर दो चार बातें.

Thursday, October 23, 2008

ग़ज़ल

इकरारे-गुनाह इश्क है शरहे-हयात अब,
नज़रों से रह गई जो, क्या हो वो बात अब.

जो जिस्म नाजनीं था निगारे नज़रनवाज़,
वो है निगाह में बर्के-सिफात अब.

गम से जो छूटा हूँ तो ये गम है मुझे,
शबे-अलम से क्यूँकर है नजात अब.

किसने हकीकतों के खज़ाने लुटा दिए,
बेमाया इस कदर है मेरी सौगात अब.

माना तेरे करम में कोई कमी नही,
पर पहले सी है कहाँ मेरी औकात अब.

नींद आ चली है बशर, तबीयत हरी नहीं,
दुनिया है बेठिकाना, क्या आबे-हयात अब.




बशर - my pen name
शरहे-हयात - जीवन का निचोड़
शबे-अलम - दुःख की रात
निगारे नज़रनवाज़- नज़र को मासूम लगने वाला
बर्के-सिफात - बिजलियाँ गिराने वाला
बेमया - तुच्छ

Wednesday, October 22, 2008

गली दूर तक खामोश है.

गली में आज सन्नाटा है,
ना ही कोई आहट ना ही कोई शोर,
मेरी हाथ की घड़ी में
शाम अभी बस ढली ही है,
फिर गली इतनी गुमसुम क्यों

मिसेज गिल भी अपनी कुर्सी डाले नही मिली
बच्चों का शोर, किलकारियां,
आज क्या हुआ है यहाँ

लड़कियों की चहलकदमी और उनके लिए
नुक्कड़ पर
हर शाम जमने वाली लड़कों की टोली
जिनका चेहरा एक आदत सी बन गई है
अपने वक्त पर नही मिले.
आज न कोई पार्किंग को लेकर झगड़ा,
न कोई खुले मेंनहाल पर चर्चा.

पूरी गली दूर तक खामोश है
अलबत्ता छोटे मन्दिर में कोई दिए जला गया है
दिवाली भी तो नज़दीक है,
देर रात तक टेलीविज़न से आती
रीयलिटी शो की आवाजें
सन्नाटा लील गया है आज.
गली के मोड़ का पनवाडी भी नदारद है,

सोचा थोड़ा आगे तक हो आऊं
शायद कोई मिल जाए
पर यहाँ भी
गली के कैनवास पर
अंधेरे का रंग लिए सन्नाटा हर कोने पसरा पड़ा है.

श्रीवास्तव जी के घर के बाहर
कुछ चप्पलें उतरी हुई हैं,

सुख हो ! रब्बा

तभी रात का पहरेदार दिखा,
उसने भी दूर से ही बुझा सा सलाम किया,
मैंने उससे पुछा,
आज रौनक को क्या हुआ,

ओह!!!
कल गली के लड़के मुंबई गए थे- घूमने,
वहां के लोगों ने
दो को मार दिया.

Monday, October 20, 2008

कैसी हो?

कैसी हो?
क्या अब भी क्षुब्द और असयंमित

मैं आकाश हूँ,
इंतज़ार में उस चिडिया के बड़े होने का,
जो पंख फैलाए
और उड़ सके मेरी हवा में.
मैं समुन्द्र हूँ,
इंतज़ार में उस बारिश की बूँद का,
जो मुझमें गिरे
और मेरा ही रूप हो जाए.
मैं तिनका हूँ,
घास का,
प्रतीक्षक उस ओस की बूँद का,
जो धरती में विलीन होने से पहले,
कुछ देर मेरी नोक पर ठहरे,
विश्राम करे.
वो चिडिया, वो बारिश,
वो ओस की बूँद
प्रतीक हैं तुम्हारे,
सिर्फ़ तुम्हारे,
क्या तुम आओगी?

Thursday, October 16, 2008

शायद प्रेम में यही होता है

मैं तुम्हे देख नही सकता
जबकि तुम मुझे चारों तरफ से घेरे हो
मैं
एक पुराने मकान की तरह हूँ
जहाँ बरसों बाद कोई रहने आया है
कुछ नए फूल,
सफ़ेद बादल और उजली धूप लिए
तुम्हारे साथ आये हैं
कई अदृश्य जन्मान्तर
आशा का एक महाद्वीप
आराधना के लिए जलता हुआ एक दीप


शायद प्रेम में यही होता है
सारा ब्रह्माण्ड यूँ ही मिल जाता है
मैं अपने रग रग में महसूस कर सकता हूँ तुम्हे
छू सकता हूँ,
तुम्हारे साथ भीग सकता हूँ,
जाग सकता हूँ, सो सकता हूँ,
तुम निश्छल आकाश हो
एक अबोध बच्चे की मासूम प्रार्थना हो
तुम धरती हो
बारिश हो
हरियाली हो
तुम मुझे भूल न जाना
एक अकस्मात अतिथि की तरह
जो संयोगवश
मेरे दरवाजे पे आ गया.

Monday, October 13, 2008

मैं खिन्न हूँ

मैं खिन्न हूँ, क्यूंकि मैं हिंदू हूँ, मुझमे और आतंकियों में अब कोई फर्क नही, मेरी गीता आज मुझे गैर हिन्दुओं का घर जलाने को कहती है, वाल्मीकि की रामायण अब झूठी हो गई है, क्यूंकि राम अब पुरुषोतम नहीं रहे. बजरंगबली तो अब घरों को भी जलाने लगे हैं. हिंदू होना मेरे सिर को अब झुकाने लगा है. महाराष्ट्र में अब मैं मराठा हूँ और उड़ीसा में बजरंगी. हिन्दुत्व शब्द अब मेरी शब्दावली में नहीं रह गया. पर माँ की पढ़ाई हिन्दुत्व की बातों में तो यह अलगाव नही था. मैंने जो गीता छानी उसमे भी यह ज़िक्र नही था, या फिर मैं कोई पन्ना पढ़ना भूल गया? जहाँ लिखा था जो हिंदू नही उसका घर फूँक दो और जलने से भी जो बच जाए उसे मार दो. यह शायद कोई नई गीता लिखी जा रही है, अगर ऐसा है तो मैं नही चाहूँगा की मेरी आने वाली नस्ले उसे पढे और राम, शिव, बजरंग बलि या कृष्ण को कोसे.
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फिर इक बार मुझे सूली चढाया जाए,
मेरे सलीब को काँधे उठाया जाए.

इस नफ़रतो-गारत की दुनिया में खुदा,
मेरे वजूद का एहसास कराया जाए.

आँख रोती है, दिल सिसकता है बहुत,
तेरे बच्चों को फिर राह पे लाया जाए.

मेरा जिस्म और लहू बंट गया है तमाम,
हो अगर तो एक और ईसा को बुलाया जाए.

तू ही मौला है, तू ही ईसा, तू ही भगवान् ! पिता,
कैसे रूठे हुए बच्चों को समझाया जाए.

कब कहा था मैंने की मेरा मजहब जुदा है,
फिर इक बार मेरे वचनों को दोहराया जाए.

Saturday, October 11, 2008

ग़ज़ल

मेरी निगाह को ये जुस्तजू भला किसकी है,
कौन से हैं लब वहाँ, ये शिफा किसकी है,

अज़ल से खींच कर जो दुनिया में लायी है मुझे,
बता तो सही ऐ खुदा, ये दुआ किसकी है,

जाते हैं कदम तन्हा, ढूँढती है किसे निगाह,
जो खींचती है वालिहाना ये सदा किसकी है,

वो कब होगा आशकार मेरे सामने ऐ खुदा,
कौन है हिजाब में ये आरजू भला किसकी है,

ये किसकी निगाह का जादू कि आईने मचल उठे,
कौन है वो भला, ये अदा किसकी है,

ग़म-ऐ-इश्क में मुश्किल है, लुत्फ़ का मय्यसर होना,
सदा रहें गर्दिश में बशर ये इल्तिज़ा किसकी है.



बशर- मेरा तख्लुस/my pen name
अज़ल - मौत
वलिहना - प्यार से
सदा - आवाज़/पुकार
आशकार - हाज़िर
हिजाब - पर्दा
मयस्सर - मुमकिन

Friday, October 10, 2008

ग़ज़ल

तेरे मकबूल हाथों में जिंदगानी दे दी,
मैंने अपनी मुह्होबत की निशानी दे दी

तू करम है, तेरे नाम का दम भरता हूँ,
मैंने सिये हुए होठों को ज़बानी दे दी

एक मुद्द्त से मैं उलझा था कोरे पन्नो में,
तूने आकर मेरे लफ्जों को कहानी दे दी

कितना मुश्किल था मुह्होबत का मुक्कमल होना
तूने देखा मेरे ज़ज्बात को, रवानी दे दी


तू फ़रिश्ता है, मासूम सा दिल रखता है
तूने बिखरे हुए मेरे घर को निगेहबानी दे दी



निगेहबानी - protection

Wednesday, October 8, 2008

शुरुआत

अभी अभी
तुम्हारे हटाए हुए परदे के पीछे से,
धूप के साथ-साथ
गुरूद्वारे की गुरुवाणी भी
तुम्हे छूती हुई चली आई है,
तुम्हारे खनकते हुए हाथों से
मेज़ पर रखी हुई चाय की प्याली,
और मीठी सी हँसी के साथ
मेरे गाल पर
तुम्हारी प्यारी सी थपकी,
सब है चर्चा से परे और प्यार के पार.
चादरों को तह करते हुए
तुम्हारी चूडियों की खनक के साथ
मेरी नींद का टूटना
कितना सुखद है यह एहसास
और कितनी खूबसूरत है
मेरे दिन की शुरुआत."

Tuesday, October 7, 2008

मेरा कमरा

जानती हो!
आज का दिन कैसा है
जब तुम मेरे पास नही हो,
सूना सा मेरा कमरा गुमसुम सा है,
हलकी सी आहट पर,
दरवाज़ा दूर तक ढूँढ आया है तुमको!
और बिस्तर की सिलवटें भी,
काफी देर से उलझी पड़ी हैं आपस में,
धूल भी,
बेखौफ,
कब से लेटी है मेरी कुर्सी पर,
और ये खिड़की
एक टक देख रही है आकाश की तरफ,
धूप भी!
कमरे में बस झांक कर
और तुम्हे न पाकर
सामने की देहलीज पर चढ़ गई है,
फूल भी बेजान पड़े हैं मेज पर
तुम्हारे स्पर्श के इंतजार में,
अजीब सी खामोशी है हर तरफ़,
और मैं इन सब से बचने के लिए
किताब हाथ में लिए बैठा हूँ
तुम्हारे आने के इंतज़ार में
सच में सब कुछ कितना अस्तित्वहीन है
आज, जब तुम मेरे पास नहीं हो.

तुम्हारा नाम

कल रात कुछ सपने
अपनी धुन में भागते, दौड़ते
अठखेलियाँ करते
मेरे सिरहाने आ पहुंचे,
बहुत प्यारे, बहुत नाज़ुक,
बहुत चंचल,
कुछ उम्र में बड़े कुछ बच्चे भी
कुछ अपनों और कुछ बेगानों के
कुछ शोख, कुछ बहुत शर्मीले,
मैंने प्यार से उन्हें सहलाया
जगह दी अपने करीब,
एक नाज़ुक ख़ूबसूरत सा सपना
उठ खड़ा हुआ बोलने को,
मैं सुन न पाया कुछ और
बस इतना ही सुना की कहीं किसी जगह
उसने लिया तुम्हारा नाम

Wednesday, October 1, 2008

यकीं दिलाओ

गर तुम इतना यकीं दिलाओ
कि तुम मेरी ज़िन्दगी में आओगी
तो अपनी पलकें दरे राह बिछा कर रखूँ
इक दिया जलता हुआ
गली के मोड़ पर रख आऊं जाकर
और चाँद से थोडी चांदनी लेकर
घर को रौशन कर लूँ

तुम आओ तो
फूलों से खुशबू चुराकर
महका दूँ चमन सारा,
अपने आंसुओं को बचा कर रखूं
तुम्हारे हर शिकवे को धोने के लिए
शब् -ऐ-हिज्राँ को न फटकने दूँ फ़िर से
हर आलम को अपनी हाथों से सवारू.

तुम्हारे चेहरे पे काजल से तिल कर दूँ
हर बला को दूर से ही रुखसत कर दूँ
तुम्हारे आने पे हर जगह फसल-ऐ-गुल होगी
न हार का दुःख होगा,
न जीत की खुशी होगी.

मेरी तमन्ना
जो कब से धूल में पड़ी थी देखो
तुम्हारा नाम सुनते ही आँगन में चली आई है
राह तक रही है तुम्हारी,
ख्वाब सजा रही है देखो

तुम आओ तो
ये मायूसी ये गम
जो कब से घर किए हैं मेरे घर में
इन्हे रुखसत कर दूँ.
मुझे अभी मन्दिर भी जाना है
मन्नत के लिए
इक दिया जलाना है
जिंदगी के लिए
बस! मुझे तुम इतना यकीं दिलाओ
कि तुम मेरी ज़िन्दगी में आओगी

Monday, September 29, 2008

आओ आलिंगन करें

आओ आलिंगन करें
जैसे फूल करता है फूल को
सूरज आभा को और रात चाँदनी को !

आओ आलिंगन करें
जैसे बारिश करती है
धरा को, पहाड़ को पेड़ को, पौधे को
और सम्पूर्ण अंतर्मन को !

आओ आलिंगन करें

क्यूंकि प्रेम से ही सब विद्यमान है
मैं और तुम भी!
दिन और वर्ष सब छूट जायेंगे,
और आँगन में पड़ी साँझ को कहीं लिखा नही जाएगा,
चिडियों की अनगिनत आवाजें बेमानी होंगी
और तुम्हरी देह से टकराती धूप
और आद्र अधर कहीं खो जायेंगे!

आओ आलिंगन करें
क्यूंकि यह रितुगान है,
बुदबुदाते हुए होठों की कामना है,
यह नई कोपलों का स्पष्ट आकार है,
ये वसंत की शुरुआत है
ये झिझकते स्पर्श से
तपते हुए संसार का आभास है
ये पतझड़ से नग्न हुए पेडों पर
नए जीवन का संचार है.

Saturday, September 27, 2008

मेरा कमरा

मेरी ज़िन्दगी के मकान का
एक वीरान कमरा
जिसका दरवाज़ा खुलता है
कुछ यादों की तरफ !
कोने की वो खिड़की
जो कितनी पसंद थी तुमको
और उस पर अपने हाथों से सजाये
तुम्हारे ख्वाबों के परदे
आज भी टंगे हैं वहीँ !
वो आले में पड़ी किताबें
जिनका हर सफा पहचानता था तुमको
आज शब्दों में उलझा सा पड़ा है,
मेज पर तुम्हारी वो तस्वीर,
याद है तुमको वो दिन
जब मेरी एशट्रे को हटा कर
अपनी तस्वीर के लिए जगह बनाई थी तुमने !
और कोने का वो मन्दिर जो अपने हाथों से सजाया था तुमने
तुम्हारी जलाई जोत अब तक जल रही है उसमे
सब कुछ आज भी वैसा है
जैसा कभी चाह था तुमने !

शाम

दोपहर की धूप से,
बचते -बचाते ,
ठंडक का छाता लगाये,
शाम !
तुम्हारे घर से होकर
मेरे आँगन तक चली आई है,
पहले दीवार से उतर कर,
मेरी कुर्सी तक,
और फिर,
धीरे - धीरे मुझमे समां गई है,
बहुत ख़ूबसूरत,
बहुत चंचल,
जैसे तुम्हारा ही रूप,
क्या मैं इसे पुकार सकता हूँ,
प्रिय!
और क्या यह पुकारेगी मुझे,
मनुज

अंत का होना ज़रूरी है

समुन्द्र की गहराई में
अपनी लालिमा समेटे हुए
डूबता हुआ सूरज !
और साहिल पे खेलते हुए कुछ बच्चे,
दौड़ते भागते, हँसते खिलखिलाते!
और वहीँ दूर,
उस साहिल पे
एक टूटी हुई नाव के पास
बैठा मैं,
विषमताओं और अविषमताओं में उलझा हुआ !
नए सूरज के उगने के इंतज़ार में
शायद!
शुरुआत के लिए अंत का होना ज़रूरी है !

Friday, September 26, 2008

एक शाम

जब किसी की आँख का पानी,
किसी का आबे-हयात हो जाए,
जब घरों में मौत,
शहर की आम बात हो जाए,
जब चिराग ही जलने लगें घर को
और घरों की हया नीलाम हो जाए,
तो ऐसे में क्यूँ ना मेरे मौला ,
एक शाम तेरे नाम हो जाए.

मनुज मेहता

मैं भेज रहा हूँ तुम्हे

सुनो
मैं भेज रहा हूँ तुम्हे
अपने झिझकते शब्दों के साथ
थोड़ा सा सावन
अंतर्मन को गुदगुदा देने वाली
पहली फुहार
सर्द सुबह की पहली ओस
भीगी हुई घास की हरी गुनगुनाहट
झींगुरों की अंतहीन पुकार
पक्षियों का कलरव
थोड़ा सा आकाश
तारों की कतार
और एक प्राचीन कामना के साथ
अपना प्रणय निवेदन।

मनुज मेहता