Saturday, September 27, 2008

शाम

दोपहर की धूप से,
बचते -बचाते ,
ठंडक का छाता लगाये,
शाम !
तुम्हारे घर से होकर
मेरे आँगन तक चली आई है,
पहले दीवार से उतर कर,
मेरी कुर्सी तक,
और फिर,
धीरे - धीरे मुझमे समां गई है,
बहुत ख़ूबसूरत,
बहुत चंचल,
जैसे तुम्हारा ही रूप,
क्या मैं इसे पुकार सकता हूँ,
प्रिय!
और क्या यह पुकारेगी मुझे,
मनुज

1 comment:

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi sundar chitran....shaam chhan se utri hai,aur kah baithi hai......waah!
aap meri kshanikaaon ko kis tarah upload karna chahte hain?