सब कुछ वैसा ही रहा,
धरती, आकाश, जंगल
और वो खुद भी!
शांत, स्थिर और सुंदर!
टूटा कुछ मेरे अंदर
पर
किसी ने आवाज़ नहीं सुनी!
कुछ बिखरा अचानक,
पर किसी ने नहीं देखा!
कुछ खो गया,
किसी ने ध्यान नहीं दिया!
उसने भी नहीं;
चले जाने के बाद।
~मनुज मेहता
Manuj Mehta
सब कुछ वैसा ही रहा,
धरती, आकाश, जंगल
और वो खुद भी!
शांत, स्थिर और सुंदर!
टूटा कुछ मेरे अंदर
पर
किसी ने आवाज़ नहीं सुनी!
कुछ बिखरा अचानक,
पर किसी ने नहीं देखा!
कुछ खो गया,
किसी ने ध्यान नहीं दिया!
उसने भी नहीं;
चले जाने के बाद।
~मनुज मेहता
कहां हो?
आपके दिल में
अच्छा! कब से?
जन्म जन्मांतर से!
ऐसी कितनी ही बातों के समंदर
ले के चलते हैं लम्हे!
और यादों की उफनती लहरें
टकराती हैं ज़हन के साहिल पर।
मैं
उस दिल में बसे रहने के लिए
किसी कड़वी याद को बुझा देता हूं
शाम के साए में
एक उम्मीद जला देता हूं!
~मनुज मेहता
कितनी परतें चढ़ा दी है परतों पर
पहुंचूं तुम तक तो भला कैसे
कोई सिरा हाथ नहीं आता।
वक्त को मैंने तो थाम के रखा है
तुम्हारे हाथो से फिसल रहा है
लम्हा लम्हा, कतरा कतरा।
गुज़रे वक्त को रोज़ संवारता हूं
छांटता हूं पीले लम्हों को
मुरझा रहे हैं,
हर पल गुजरते वक्त के साथ।
रोज़ कोशिश करता हूं, संभालूं।
शायद तुम्हारे हाथों से जी जाएं।
अपनी सांस की हवा दे दो
अपनी उंगलियों की छुअन
अधूरे लम्हे, नए की आस में
शायद फिर हरे हो जाएं।
~मनुज मेहता