Friday, December 20, 2019
रेत का शहर
उस कोने के कमरे में जाने से
अब जी घबराता है।
तुमसे पड़ी चादरों पे सिलवटें
साफ नज़र आती हैं अब भी।
वो दरवाज़ा जो चीख़ के बंद होता था
तुम्हे सुनने के लिए चुपचाप खड़ा है।
वो मुंढेर पर पड़े मटके
अब भी वहीं है तुम्हारे हाथों
के निशान लिए।
वो बॉनफायर की जगह
वो लिहाफ, वो सीढियां
देखती हैं एक टक मुझे
वो बच्चे जो कभी लिपटते थे तुमसे
पूछते हैं तुमको हर बार
मैं टॉफियों से बहला देता हूँ उनको।
हो सके तो चलो इक बार फिर
जो रात छोड़ आये थे रेत पर
उसको सुबह दे दें।
अकेले
उस रेत के शहर जाने से अब जी घबराता है।
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