Saturday, May 31, 2014

पुरानी किताब

आओ वो पुरानी किताब ढूंढें,
जिसके सफों में बरसों पहले,
एक गुलाब रखा था हमने, 
आओ! उसे पानी दे दें 
मुरझा गया है शायद.

सर्दी की वो सर्द सुबहें भी,
कितनी गर्म थीं उस शॉल के अंदर
जिसे हम अक्सर ओढ़ लिया करते थे 
आओ! वो शॉल ढूंढें.

कॉफी होम के वो दिन, याद हैं ना,
कितने आसान से थे,
तुम्हारा आना, मेरा मिलना
और शाम का हंसते हुए चुपचाप ढल जाना
आओ! उन हंसती शामों की सुबह ढूंढें.

आओ! वो पुरानी किताब ढूंढें!

~मनुज मेहता

9 comments:

Unknown said...

Remembering...As the soft notes of a melancholy tune... your words awaking my senses... warm scents of golden Autumn, calling back the first colours of Spring...the thrill of emotions...that makes Humans feel so alive...
It is very Beautiful Poem. For the first time, I could enjoy your writting through a very good english translation...Congratulations!! You are an excellent Poet!

Manuj Mehta said...

thank you so very much Teresa Gouveia for understanding the poem. i am glad you like it and enjoyed it.
regards

रेणु मिश्रा said...

बहुत ही प्यारी कविता है...बातों को इतनी आसानी से कह जाना कोई तुम से सीखे...:) शुक्र है कि...
तुम लौट आए अपने कमरे पर,
जाने कितने दिनो से तकते तकते
निगाहें बेजान सामान हो चली थी!!


दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब .. यादों की पुरानी किताब में कितना कुछ है ... लाजवाब ...

Manuj Mehta said...

Shukriya Renu ji. i am glad you read this and appreciated this. Yes you are right, i have not published here from many months. i will keep it rolling! :)

Manuj Mehta said...

Shukriya Digamber Naswa ji for your appreciation1 :)

Anonymous said...

Amazing finally the point s here.... :)

nidhi kumari said...

wow very nice..happy new year2017
www.shayariimages2017.com

संजय भास्‍कर said...

आज मैं आपके ब्लॉग पर आया और ब्लोगिंग के माध्यम से आपको पढने का अवसर मिला 
ख़ुशी हुई.