मैं खींच लूँगा आकाश से नीली चादर
और सफ़ेद बादलों से नरम तकिया,
घास से मांग लूँगा हरा कालीन
और पेड़ से छप्पर,
तुम्हारे लिए सब कुछ वैसा ही रखूँगा,
शरद के आकाश में आधा चाँद,
झींगुरों का संगीत
और जुगनुओं की टिमटिमाती रौशनी.
रात को लगने वाली प्यास के लिए पास की नदी
और तुम्हे रिझाने के लिए कुछ नक्षत्र और आकाशगंगा.
हवा भी मंद मंद तुम्हारे बालों को सहलाती चलेगी.
जहाँ जहाँ तुम्हारा तपता स्पर्श होगा वही फूटेगी ईब
तुम्हारी आधी मुंदी आँखों में मेरे जगे स्वप्न तैर जायेंगे
और एक नयी कविता लिखेंगे
और तुम्हारी रौशनी में
मेरे कुछ अँधेरे शब्द पा जायेंगे ज़िन्दगी.
Friday, June 5, 2009
Saturday, February 21, 2009
दरवाज़ा
जब तुम खोलोगी दरवाज़ा,
तो तुम्हारे पीछे का वो आला
अपनी कितोबों की आभा
उड़ेल देगा तुम पर,
खिड़की की धूप
रौशन कर देगी तुमको
और हवा
न जाने तुम्हारी कितनी ही खुशबूएं ले आएँगी मुझ तक
चिड़ियों की न जाने कितनी ही आवाजें
तुम्हारे साथ मुझे अंगीकार करने को आतुर होंगी,
और पलाश की अन्तिम किरण
हमारे ही कमरे में बुझेगी.
तुम्हारी हँसी जैसे दिन के हर यौवन को
अपनी अंजलि से उछाल देगी मेरी तरफ़.
और जब तुम्हारे होठों की परछाइयां झुकेंगी मेरे होठों पर
सांझ का रंग डूब जाएगा.
तब आनंत में एक खिड़की खुलेगी
और हमारी देह को दीप्त करती हुई
अन्तरिक्ष में प्रेम की जगह बनाएगी.
अनंत तारों एक बिछौना होगा
और हमारी देह
एक ज्वलंत पुष्प!
तो तुम्हारे पीछे का वो आला
अपनी कितोबों की आभा
उड़ेल देगा तुम पर,
खिड़की की धूप
रौशन कर देगी तुमको
और हवा
न जाने तुम्हारी कितनी ही खुशबूएं ले आएँगी मुझ तक
चिड़ियों की न जाने कितनी ही आवाजें
तुम्हारे साथ मुझे अंगीकार करने को आतुर होंगी,
और पलाश की अन्तिम किरण
हमारे ही कमरे में बुझेगी.
तुम्हारी हँसी जैसे दिन के हर यौवन को
अपनी अंजलि से उछाल देगी मेरी तरफ़.
और जब तुम्हारे होठों की परछाइयां झुकेंगी मेरे होठों पर
सांझ का रंग डूब जाएगा.
तब आनंत में एक खिड़की खुलेगी
और हमारी देह को दीप्त करती हुई
अन्तरिक्ष में प्रेम की जगह बनाएगी.
अनंत तारों एक बिछौना होगा
और हमारी देह
एक ज्वलंत पुष्प!
Sunday, January 18, 2009
हारे हुए शब्दों का मोल
सुनो, तुम मेरे शब्दों का मोल क्या दोगे?
कहाँ हैं तुम्हारी जेब में आकाश गंगा और हजारों सितारे?
बिस्तर की कितनी ही सिलवटों में
धरती,आकाश
और अन्जले चिरागों को समेटा है मैंने.
तुम्हारे अस्वीकार के बाद
उन हारे हुए शब्दों का क्या मोल?
डूबते हुए अंधेरे के अदृश्य कम्पन में
चाँद मेरी आंखों में कई बार डूबा है,
तुम्हारे बदलते रंगों से ,
तुम्हारी त्वचा के उजास से
अंधेरे और उजाले के बीच की खामोशी से.
अपने अंगों से,
अपनी देह से,
अपने मन से,
अपने ही भार से,
और तुम्हारे मर्दन से,
डर लगता है
तुम्हारा चुप रहकर मेरे निराश झरोखे पर खड़े रहना
अंत के पहले का विषाद नही तो और क्या है?
तुम्हारे होने का न तो हवा को पता है न ही धूप को
तुम्हारी झुलसती अंतरात्मा और पथराती देह क्या मोल देगी मेरे शब्दों का,
क्यूंकि धूप नही कहती की उसके पास रौशनी है
और आग की उसके पास लपटें.
कहाँ हैं तुम्हारी जेब में आकाश गंगा और हजारों सितारे?
बिस्तर की कितनी ही सिलवटों में
धरती,आकाश
और अन्जले चिरागों को समेटा है मैंने.
तुम्हारे अस्वीकार के बाद
उन हारे हुए शब्दों का क्या मोल?
डूबते हुए अंधेरे के अदृश्य कम्पन में
चाँद मेरी आंखों में कई बार डूबा है,
तुम्हारे बदलते रंगों से ,
तुम्हारी त्वचा के उजास से
अंधेरे और उजाले के बीच की खामोशी से.
अपने अंगों से,
अपनी देह से,
अपने मन से,
अपने ही भार से,
और तुम्हारे मर्दन से,
डर लगता है
तुम्हारा चुप रहकर मेरे निराश झरोखे पर खड़े रहना
अंत के पहले का विषाद नही तो और क्या है?
तुम्हारे होने का न तो हवा को पता है न ही धूप को
तुम्हारी झुलसती अंतरात्मा और पथराती देह क्या मोल देगी मेरे शब्दों का,
क्यूंकि धूप नही कहती की उसके पास रौशनी है
और आग की उसके पास लपटें.
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