कितनी परतें चढ़ा दी है परतों पर
पहुंचूं तुम तक तो भला कैसे
कोई सिरा हाथ नहीं आता।
वक्त को मैंने तो थाम के रखा है
तुम्हारे हाथो से फिसल रहा है
लम्हा लम्हा, कतरा कतरा।
गुज़रे वक्त को रोज़ संवारता हूं
छांटता हूं पीले लम्हों को
मुरझा रहे हैं,
हर पल गुजरते वक्त के साथ।
रोज़ कोशिश करता हूं, संभालूं।
शायद तुम्हारे हाथों से जी जाएं।
अपनी सांस की हवा दे दो
अपनी उंगलियों की छुअन
अधूरे लम्हे, नए की आस में
शायद फिर हरे हो जाएं।
~मनुज मेहता