Sunday, January 18, 2009

हारे हुए शब्दों का मोल

सुनो, तुम मेरे शब्दों का मोल क्या दोगे?
कहाँ हैं तुम्हारी जेब में आकाश गंगा और हजारों सितारे?

बिस्तर की कितनी ही सिलवटों में
धरती,आकाश
और अन्जले चिरागों को समेटा है मैंने.

तुम्हारे अस्वीकार के बाद
उन हारे हुए शब्दों का क्या मोल?

डूबते हुए अंधेरे के अदृश्य कम्पन में
चाँद मेरी आंखों में कई बार डूबा है,

तुम्हारे बदलते रंगों से ,
तुम्हारी त्वचा के उजास से
अंधेरे और उजाले के बीच की खामोशी से.
अपने अंगों से,
अपनी देह से,
अपने मन से,
अपने ही भार से,
और तुम्हारे मर्दन से,
डर लगता है

तुम्हारा चुप रहकर मेरे निराश झरोखे पर खड़े रहना
अंत के पहले का विषाद नही तो और क्या है?

तुम्हारे होने का न तो हवा को पता है न ही धूप को

तुम्हारी झुलसती अंतरात्मा और पथराती देह क्या मोल देगी मेरे शब्दों का,

क्यूंकि धूप नही कहती की उसके पास रौशनी है
और आग की उसके पास लपटें.