Saturday, February 21, 2009

दरवाज़ा

जब तुम खोलोगी दरवाज़ा,
तो तुम्हारे पीछे का वो आला
अपनी कितोबों की आभा
उड़ेल देगा तुम पर,

खिड़की की धूप
रौशन कर देगी तुमको
और हवा
न जाने तुम्हारी कितनी ही खुशबूएं ले आएँगी मुझ तक

चिड़ियों की न जाने कितनी ही आवाजें
तुम्हारे साथ मुझे अंगीकार करने को आतुर होंगी,

और पलाश की अन्तिम किरण
हमारे ही कमरे में बुझेगी.

तुम्हारी हँसी जैसे दिन के हर यौवन को
अपनी अंजलि से उछाल देगी मेरी तरफ़.

और जब तुम्हारे होठों की परछाइयां झुकेंगी मेरे होठों पर
सांझ का रंग डूब जाएगा.

तब आनंत में एक खिड़की खुलेगी
और हमारी देह को दीप्त करती हुई
अन्तरिक्ष में प्रेम की जगह बनाएगी.

अनंत तारों एक बिछौना होगा
और हमारी देह
एक ज्वलंत पुष्प!