Monday, September 29, 2008

आओ आलिंगन करें

आओ आलिंगन करें
जैसे फूल करता है फूल को
सूरज आभा को और रात चाँदनी को !

आओ आलिंगन करें
जैसे बारिश करती है
धरा को, पहाड़ को पेड़ को, पौधे को
और सम्पूर्ण अंतर्मन को !

आओ आलिंगन करें

क्यूंकि प्रेम से ही सब विद्यमान है
मैं और तुम भी!
दिन और वर्ष सब छूट जायेंगे,
और आँगन में पड़ी साँझ को कहीं लिखा नही जाएगा,
चिडियों की अनगिनत आवाजें बेमानी होंगी
और तुम्हरी देह से टकराती धूप
और आद्र अधर कहीं खो जायेंगे!

आओ आलिंगन करें
क्यूंकि यह रितुगान है,
बुदबुदाते हुए होठों की कामना है,
यह नई कोपलों का स्पष्ट आकार है,
ये वसंत की शुरुआत है
ये झिझकते स्पर्श से
तपते हुए संसार का आभास है
ये पतझड़ से नग्न हुए पेडों पर
नए जीवन का संचार है.

Saturday, September 27, 2008

मेरा कमरा

मेरी ज़िन्दगी के मकान का
एक वीरान कमरा
जिसका दरवाज़ा खुलता है
कुछ यादों की तरफ !
कोने की वो खिड़की
जो कितनी पसंद थी तुमको
और उस पर अपने हाथों से सजाये
तुम्हारे ख्वाबों के परदे
आज भी टंगे हैं वहीँ !
वो आले में पड़ी किताबें
जिनका हर सफा पहचानता था तुमको
आज शब्दों में उलझा सा पड़ा है,
मेज पर तुम्हारी वो तस्वीर,
याद है तुमको वो दिन
जब मेरी एशट्रे को हटा कर
अपनी तस्वीर के लिए जगह बनाई थी तुमने !
और कोने का वो मन्दिर जो अपने हाथों से सजाया था तुमने
तुम्हारी जलाई जोत अब तक जल रही है उसमे
सब कुछ आज भी वैसा है
जैसा कभी चाह था तुमने !

शाम

दोपहर की धूप से,
बचते -बचाते ,
ठंडक का छाता लगाये,
शाम !
तुम्हारे घर से होकर
मेरे आँगन तक चली आई है,
पहले दीवार से उतर कर,
मेरी कुर्सी तक,
और फिर,
धीरे - धीरे मुझमे समां गई है,
बहुत ख़ूबसूरत,
बहुत चंचल,
जैसे तुम्हारा ही रूप,
क्या मैं इसे पुकार सकता हूँ,
प्रिय!
और क्या यह पुकारेगी मुझे,
मनुज

अंत का होना ज़रूरी है

समुन्द्र की गहराई में
अपनी लालिमा समेटे हुए
डूबता हुआ सूरज !
और साहिल पे खेलते हुए कुछ बच्चे,
दौड़ते भागते, हँसते खिलखिलाते!
और वहीँ दूर,
उस साहिल पे
एक टूटी हुई नाव के पास
बैठा मैं,
विषमताओं और अविषमताओं में उलझा हुआ !
नए सूरज के उगने के इंतज़ार में
शायद!
शुरुआत के लिए अंत का होना ज़रूरी है !

Friday, September 26, 2008

एक शाम

जब किसी की आँख का पानी,
किसी का आबे-हयात हो जाए,
जब घरों में मौत,
शहर की आम बात हो जाए,
जब चिराग ही जलने लगें घर को
और घरों की हया नीलाम हो जाए,
तो ऐसे में क्यूँ ना मेरे मौला ,
एक शाम तेरे नाम हो जाए.

मनुज मेहता

मैं भेज रहा हूँ तुम्हे

सुनो
मैं भेज रहा हूँ तुम्हे
अपने झिझकते शब्दों के साथ
थोड़ा सा सावन
अंतर्मन को गुदगुदा देने वाली
पहली फुहार
सर्द सुबह की पहली ओस
भीगी हुई घास की हरी गुनगुनाहट
झींगुरों की अंतहीन पुकार
पक्षियों का कलरव
थोड़ा सा आकाश
तारों की कतार
और एक प्राचीन कामना के साथ
अपना प्रणय निवेदन।

मनुज मेहता